Tuesday, March 10, 2009

दशहरा महोत्सव - अल्मोड़ा

हिमालय में अवस्थित अल्मोड़ा अत्यंत सुन्दर व सुरम्य पर्वतीय स्थलों में से एक है । यदि एक बार अल्मोड़ा के आसपास की नैसर्गिक सुन्दरता एवं दशहरा महोत्सव को देख लिया तो निश्चित ही मन बार-बार यहाँ आने के लिए प्रयत्न करेगा ।

कार्तिक मास में मनाये जाने वाले दशहरा समारोहों में देशभर में बुराई के प्रतीक राक्षस परिवारों के पुतलों का दहन किया जाता है । लेकिन कुमाऊँ के सांस्कृतिक केन्द्र तथा सांस्कृतिक चेतना के उद्गमस्थल अल्मोड़ा में मनाये जाने वाला दशहरा महोत्सव रामकथा के रसिकों को कल्पना के आलोक की सैर करवा देता है मानों इन पात्रों की जीवन यात्रा उनके सम्मुख ही घट रही हो । दशहरे के दिन रंग-बिरंगे पुतलों के सम्मुख खड़ा दर्शक अपने को वर्तमान से कहीं दूर अतीत में घटनाचक्र के नजदीक पाता है ।

अल्मोड़ा का दशहरा महोत्सव भी साम्प्रदायिक सौहार्द की ही एक अनुभूति है । दर्जन भर से अधिक पुतलों के निर्माण में शौकिया कलाकारों की कल्पना और सृजनशीलता ने इन पुतलों को प्रतीक भर ही नहीं रहने दिया है वरन् रामकथा के प्रस्तुतकर्ताओं की वैचारिकता को गढ़ने का सफल प्रयास किया है । रामकथा के खलनायकों को जीवन्त रुप में इस प्रकार से गढ़ दिया जाता है कि थोड़ी सी विषयवस्तु के आधार पर तैयार भावभंगिमा और अलंकरण से सुसज्जित पुतला अपनी पात्रगत विशेषता के अनुसार मूक सम्प्रेषण दे सके । यूँ तो अल्मोड़ा में राक्षस परिवार के पुतले देश के अन्य भागों की तरह ही बनाये जाते हैं लेकिन अन्य स्थानों की अपेक्षा यहाँ के पुतले कलात्मकता और भव्यता के साथ उन कलाकारों के द्वारा निर्मित होते हैं जो किसी भी तरह से पेशेवर नहीं है । यह कलाकार हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई अथवा किसी भी धर्म अथवा सम्प्रदाय के हो सकते हैं । साथ ही सम्भवत: दशहरे के अतिरिक्त कभी ही कोई पुतला बनाते हैं लेकिन जब दशहरे में पुतला निर्माण की कला को प्रदर्शित करते हैं तो लोग आश्चर्य से अंगुली दबा जाते हैं । जैसा शरीर सौष्ठव, रुप विन्यास, कलासज्जा, शारीरिक मुद्रायें इन पुतलों में प्रदर्शित होती हैं, अन्य जगहों पर दुर्लभ हैं । दशहरे के दिन इन पुतलों का जुलूस भी निकलता है ।
अल्मोड़ा में दशहरा महोत्सव की तैयारी एक माह पहले से ही हो जाती है । मोहल्ले-मोहल्ले में रावण परिवार के पुतलों के निर्माण के लिए युवा सक्रिय हो जाते हैं । आब तो स्थान-स्थान पर पुतला निर्माण कमेटियाँ बन गयी हैं । पुतले बाँस की खपच्चियों से तैयार नहीं किये जाते । यहाँ ऐंगिल अचरन के फ्रेम पर पुतलों का निर्माण होता है । पुतलों में पराल भरकर उन्हें बोरे से सिलकर तथा उस पर कपड़े से मनोनुकूल आकृति दी जाती है । चेहरा प्लास्टर आफ पेरिस का भी बनाया जाता है ।

इन पुतलों की नयनाभिराम छवि, आँख, नाक तथा विशिष्ट अवयवों को अनुपात देने में यहाँ के शिल्पी अपनी समस्त कला झोंक देते हैं । इन शिल्पियों का हस्तलाघव, कल्पनाशीलता, कौशल देखते ही बनता है । पूरा धड़ एक साथ बनाया जाता है, केवल चेहरा अलग से तैयार किया जाता है । प्रत्येक पुतले में उसकी भाव भंगिमा और मुद्राओं को सूक्ष्मतम रुप में प्रस्फुटित किया जाता है । इन सबके बाद शुरु होता है पुतले का अलंकरण । अल्मूनियम की पन्नियों, चमकदार कागज से किरीट, कुँडल, माला, कवच, बाजूबन्ध तथा विभिन्न आयुध बनाये जाते हैं ।

दशहरे के दिन दोपहर से यह पुतले अपने निर्माण स्थल से निकलते हैं । तब इनकी सज्जा देखते ही बनती है । पुतलों की यात्रा लाला बाजार से एक जुलूस के रुप में प्रारंभ होती है । इन पुतलों में रावण, मेघनाद, कुम्भकर्ण, ताड़िका, सुबाहु, त्रिशरा, अक्षयकुमार, मकराक्ष, खरदूषण, नौरा आदि के पुतले शोख रंगों से संवारे जाने से अनोखी आभा लिए हुए होते हैं । इनके साथ-साथ पुतला निर्माण समितियों के लोग भी चलते हैं । जूलुस को क्योंकि अपने गन्तव्य पर पहुँचते-पहुँचते काफी रात हो जाती है इसलिए प्रकाश की भी समुचित व्यवस्था की जाती है । बाल कलाकार भी इस जूलुस में अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं । दशहरे के ही दिन विजयदायनी देवी दुर्गा की प्रतिमायें क्रमश: नंदादेवी एवं गंगोल मुहल्ले के निवासी शोभा यात्रा हेतु लाते हैं । भजन कीर्तन के मध्य लाल वस्र धारण किये माँ दुर्गा की प्रतिमायें विसर्जन के लिए क्वारव ले जायी जाती हैं जहाँ कोसी और सुआल नदियों के संगम पर प्रतिष्ठापूर्वक उनका विसर्जन किया जाता है ।

दशहरे की शाम अल्मोड़ा में देखते ही बनती है । विद्युत की सजावट से सारा शहर दिपदिप करता है । एक माह से चली आ रही गतिविधियों के यह उत्कर्ष का दिन होता है जिसका आनंद यहाँ आये देश-विदेश के पर्यटक देर रात तक लेते हैं ।

इस उत्सव की एक विशेषता यह भी है कि हर मुहल्ले के लोग जूलूस के रुप में अपने-अपने पुतले लेकर आते हैं, इसलिए जितनी सक्रिय भागीदारी पूरे नगरवासियों की इस उत्सव में होती है अन्य किसी भी उत्सव में शायद ही कहीं होती हो । पहले पुतले शहर में जूलूस के रुप में नहीं आते थे । एक दशक पूर्व अख्तर भारती जैसे कलाकारों ने मेघनाद के पुतले से इस उत्सव को जो दिशा दी उसी का परिणाम आज बनने वाले एक दर्जन से ज्यादा पुतलों का जूलूस है ।

पिछले कुछ वर्षों में स्थानीय जनता के प्रयासों से यह महोत्सव लोकानुरंजन का पहत्वपूर्ण आधार बन गया है ।
Source:http://tdil.mit.gov.in/CoilNet/IGNCA/utrn0023.htm

No comments: